होली भूतिया स्टोरी

🎭 रंगों का श्राप – एक भयानक मोड़! 👻

"होली… रंगों का त्योहार। लेकिन क्या कभी सोचा है कि इन रंगों के पीछे छिपे साये भी हो सकते हैं? वो रंग जो सिर्फ़ खुशियों के नहीं… बल्कि बदले के भी हो सकते हैं?"

बच्चे होली खेल रहे हैं, ढोल-नगाड़े बज रहे हैं, चारों ओर खुशियाँ हैं। लेकिन एक कोना ऐसा भी है, जहाँ कोई नहीं जाता… रतनपुर की वीरान हवेली। 

गाँव के बुजुर्ग हवेली की तरफ़ इशारा कर फुसफुसाते हैं।

बुजुर्ग 1: "उस हवेली के अंदर कोई नहीं जाता… जो गया, वो लौटकर नहीं आया!"

बुजुर्ग 2: "वहाँ रंगों का श्राप है। होली की रात वहाँ कुछ अजीब होता है।"

लेकिन गाँव के चार शरारती लड़के – राजू, मनु, समीर और गुड्डू – इन बातों को मज़ाक समझते हैं।

राजू (हंसते हुए): "अरे, ये सब बकवास है! आओ, इस बार की होली हवेली में खेलेंगे!"

गुड्डू (मुस्कुराते हुए): "डरते हो क्या? भूत-प्रेत कुछ नहीं होते!"

लेकिन हवेली की छाया में… कोई खड़ा सब सुन रहा था।

रात होते ही चारों दोस्त हवेली के अंदर पहुँचते हैं।

(दरवाजा चरमराते हुए अपने आप खुल जाता है, जैसे उन्हें बुला रहा हो।)

हवेली के अंदर धूल और जाले थे, लेकिन एक अजीब-सी बात थी – दीवारों पर गुलाल के धब्बे थे!

मनु (आश्चर्य से): "ये कैसे हो सकता है? यहाँ तो कोई आता भी नहीं!"

गुड्डू (हंसते हुए): "कोई न कोई आया होगा। चलो, हम भी रंग उड़ाते हैं!"

गुड्डू एक मुट्ठी गुलाल हवा में उछालता है…

लेकिन जैसे ही रंग उड़ता है… एक अजीब-सी फुसफुसाहट गूंज उठती है।

"तुम भी इस खेल का हिस्सा बनोगे..."

(लाइट अचानक झपकती है, दरवाजे अपने आप बंद हो जाते हैं!)

समीर (डरते हुए): "ये… ये क्या था?"

दीवारों से अचानक लाल रंग टपकने लगता है। लेकिन… वो रंग नहीं, खून था!

(तभी अचानक दिखाता है कि दीवार पर किसी लड़की की पुरानी तस्वीर बनी हुई है, और उसकी आँखों से लाल धब्बे गिर रहे हैं।)

अचानक… एक परछाईं उभरती है।

चित्रा!

उसकी आँखें गहरी काली, होंठ पपड़ीदार, और चेहरे पर सूखा गुलाल चिपका हुआ था।

मनु (काँपते हुए): "तुम… तुम कौन हो?"

चित्रा : "हर साल, मैं नए चेहरों का इंतजार करती हूँ… जो मेरे अधूरे खेल को पूरा करें।"

राजू दरवाजे की तरफ़ भागने की कोशिश करता है, लेकिन…

उसके पाँव ज़मीन में धंसने लगते हैं, जैसे नीचे कोई खींच रहा हो!

समीर की आँखों से लाल रंग बहने लगता है।

और तभी… गुड्डू ज़ोर से हंस पड़ा।

गुड्डू : "तो आखिरकार आ ही गई, चित्रा?"

राजू और मनु ने गुड्डू की तरफ़ देखा।

उसकी आँखें काली हो चुकी थीं… और चेहरे पर डरावनी हंसी थी।

राजू  "क्या… क्या हो रहा है?"

गुड्डू धीरे-धीरे चित्रा के पास गया और बोला,

"तुमने सोचा, सिर्फ़ तुम बदला लोगी?"

चित्रा के चेहरे पर पहली बार डर उभरा।

चित्रा: "तुम… तुम कौन हो?"

गुड्डू मुस्कुराया… और जैसे ही उसने अपनी पिचकारी उठाई, उसमें से लाल रंग नहीं… काला धुंआ निकला!

"मैं भी उसी रात मरा था, चित्रा!"

गुड्डू का शरीर अब धुंआ बन चुका था।

चित्रा चिल्लाई, लेकिन… बहुत देर हो चुकी थी।

हवेली के दरवाजे ज़ोर से खुल गए, और हवा में गुलाल के साथ दो परछाइयाँ उड़ गईं…

(सुबह का दृश्य – गाँव में फिर से होली खेली जा रही है। लोग खुश हैं, लेकिन… कुछ बदल चुका है।)

राजू और मनु हवेली से बाहर निकलते हैं।

लेकिन… कोई उन्हें देख नहीं रहा था!

राजू भीड़ के पास जाकर चिल्लाता है –

"अंकल! हम बच गए!"

लेकिन किसी ने जवाब नहीं दिया।

मनु ने एक बच्चे के कंधे पर हाथ रखा… लेकिन हाथ आर-पार चला गया!

राजू और मनु ने एक-दूसरे की तरफ़ देखा… और समझ गए…

अब वे भी… चित्रा और गुड्डू की तरह… होली के श्राप का हिस्सा बन चुके थे!

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